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कहानी उस 'शेर' की जो अनाथालय में पला-बढ़ा, 21 साल बाद दुश्मन को घर में घुसकर मारा

भारत मां के उस वीर सपूत की जयंती है


जिसने दुश्मन को उसी के घर में घुसकर मारा। अंग्रेजों में जिनके नाम का खौफ था। बचपन अनाथालय में बीता लेकिन दिल में आजादी की ज्वाला धधकती रही। बस क्लिक करते जाइए और पढ़ते जाइए उस गौरव गाथा को जिस पर पूरे देश को नाज है।हम बात कर रहे हैं अमर शहीद उधम सिंह की। आज के दिन ही यानि 26 दिंसबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में शहीद उधम सिंह का जन्म हुआ था। सन 1901 में उधम सिंह की माता और 1907 में उनके पिता का निधन हो गया। इस घटना के चलते उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। उधम सिंह का बचपन का नाम शेर सिंह और उनके भाई का नाम मुक्ता सिंह था, 

जिन्हें अनाथालय में क्रमश: उधम सिंह और साधु सिंह के रूप में नए नाम मिले।बाद में सरदार उधम सिंह ने भारतीय समाज की एकता के लिए अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद सिंह आजाद रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक है। ऊधम सिंह ने पासपोर्ट बनवाने के लिए अपना नाम बदल लिया था। गदर पार्टी से जुड़ने के बाद पांच साल तक कारावास में भी रहे। जेल से निकलने के बाद पासपोर्ट बनवा कर विदेश जाने की ठानी। भगत सिंह उनके दोस्त थे, दोनों लाहौर जेल में एक बार मिले भी थे। उधम सिंह भले ही अनाथालय में पल रहे थे, पर देश प्रेम को अपने अंदर पाल रहे थे। अनाथालय में उधम सिंह की जिंदगी चल ही रही थी कि 1917 में उनके बड़े भाई का भी देहांत हो गया।वह पूरी तरह अनाथ हो गए। 

1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शमिल हो गए और देश की आजादी तथा डायर को मारने की अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए लगातार काम करते रहे। उधम सिंह के सामने ही 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ था। वे प्रत्यक्षदर्शी थी। वे गवाह थे उन हजारों बेनामी भारतीयों की नृषंश हत्या के, जो तत्कालीन जनरल डायर के आदेश पर गोलियों के शिकार हुए थे।यहीं पर उन्होंने उन्होंने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर जनरल डायर और पंजाब के गवर्नर माइकल ओ डायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली, जिसके बाद क्रांतिकारी बन गए। उधम सिंह के लंदन पहुंचने से पहले जनरल डायर 1927 में बीमारी के चलते मर गया था। पर वे माइकल ओ डायर को मारने का मौका ढूंढते रहे। 

1934 में किसी तरह से वे लंदन पहुंचे और वहां 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे। वहां उन्होंने एक कार खरीदी और साथ में अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवॉल्वर भी।फिर वे माइकल ओ डायर को ठिकाने लगाने के लिए सही वक्त का इंतजार करने लगे। उधम सिंह को मौका 1940 में मिला। जलियांवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हॉल में बैठक थी, जहां माइकल ओ डायर भी आया था। उधम सिंह उस दिन समय रहते बैठक स्थल पर पहुंच गए। अपनी रिवॉल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा ली। इसके लिए उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवॉल्वर के आकार में उस तरह से काट लिया था, जिससे डायर की जान लेने वाला हथियार आसानी से छिपाया जा सके।बैठक के ठीक बाद दीवार के पीछे से उधम सिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियां दाग दीं। माइकल को दो गोलियां लगीं और उसकी मौके पर ही मौत हो गई। इस तरह उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी बख्शा नहीं करते। उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और अपनी गिरफ्तारी दे दी। उन पर मुकदमा चला। अदालत में जब उनसे पूछा गया कि वह डायर के अन्य साथियों को भी मार सकते थे, 

लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया। उधम सिंह ने जवाब दिया कि वहां पर कई महिलाएं भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। 4 जून 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई। इस तरह यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अमर हो गया। 1974 में ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए, लेकिन उनकी पिस्टल और कुछ अन्य सामान आज भी अंग्रेजों के पास ही है।


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