कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बे-हिसाब आए
अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए
अब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए
अपनी हालत का ख़ुद एहसास नहीं है मुझ को
मैं ने औरों से सुना है कि परेशान हूँ मैं
कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया
अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे
बे-हिस बना चुकी है बहुत ज़िंदगी मुझे
वो तो ग़ज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा
सब अपने अपने चाहने वालों में खो गए